Skip to main content

श्रीगुरु चरन लड़ाइहौं , संगिनी जू भाव

Do not Share

"प्रथम जथामति श्रीगुरु चरन लड़ाइहौं।
उदित मुदित अनुराग प्रेम गुन गाइहौं।।
गौरस्याम सुखरासि तिनहैं दुलराइहौं।
देहु सुमति बलि जाऊं आनंद बढ़ाइहौं।।
आनंद सिंधु बढ़ाइ छिन छिन प्रेम प्रसादहिं पाइहौं।
जयश्रीबरबिहारिनिदासि कृपा तें हरषि मंगल गाइहौं।।"
नित नित निहार रही...दासी निहार क्या रही...निहारने भर की चाहना को मात्र चाह रही...यही कामना...बस निहारने भर की...नित नव उत्कण्ठा भरती जा रही हिय में...पर निहार ना पाई री...जुग...कल्प सम काल बीत रहा...अश्रु भी बहना थम चुके...किंचित पुकार उठते उठते भी जब दम तोड़ने लगी...क्षुधा भीतर कहीं खोने लगी...तभी...तभी सखी री...एक पट आ गिरा पटावरण में कामग्रसित नेत्रों समक्ष...तनिक घबरा सी गई...जैसे एक नहीं अनंत पट लगा रखे थे स्वयं ही लौकिक दायरों के...कुछ समझ ना पड़ रही...ओझल हो रहा या भरी भरी सिसकियों की ब्यार में मधुता भरने को...
पट गिरते ही जैसे कुछ सुवास सी भर आई और हिय प्रफुल्लित पुलकित हो उठा...नयन मूँद बस निहार पाई तो अति सरस सरिता से बहते उतरते अंतःकरण में प्रकाशित चरन...जाने कौन...कैसे...कहाँ से...ऐसे प्रवेश किए भावसागर में कि मात्र निहारने भर से मधुता ने स्पर्श कर दिया...सगरी कामनाएँ नयनों के आगे से दौड़ कर उन चरणों में आ पड़ी...सात्विक कामनाएँ...जैसे अलौकिक...अप्राकृतिक...होने को...
पुनः पट खुले...वो चरन हिय में जैसे अपने निशान छोड़ गए...पुनः पट गिरने तक...नयनों ने फिर टोहना आरंभ किया...मन बुद्धि चित्त ...सब एक कगार पर खड़े जैसे निहार रहे कि चेतना अब किधर ले चली...ब्यार चलती...दासी नहीं...कोई निहार रहा भीतर...उन पट के भीतर भी...आखिर क्या...पट उठे तो फिर सब ओझल...एक बार नहीं ...अनंत बार...बार बार...पुनः दृष्टि आ गिरती उन्हीं चरणों में...अब मौन होने के अतिरिक्त कुछ शेष रह ही कहाँ गया था...तो बस...उन चरणों से ऊपर ना उठने का विचार कर सुवासित ब्यार में बहती रसीली रसभरी नामुच्चारण तरंगों का अनुगमन करने लगी...
सखी...सखी जैसे ही...नामरस की तरंगें घुलने रिसने लगीं तो...तो...नयनों के अप्राकृतिक पट सहज ही गिर गए...समस्त कामनाएँ उन चरणों की रज में धूल हुईं तो सखी...सखी...पुनः पट खुले...पर इस बार पट खुलने में कोई रहस्य नहीं था...अद्वेत नहीं था...अभिन्नता थी... ऐसे खुले जैसे बरसों से इस नीरसता को रस करने हेतु ही इस एक पल की प्रतीक्षा में था...
अद्भुत ...क्या निहारा तब...जिन्हें युगों से दो कर निहार रही थी...वे दो हैं ही कहाँ...वे तो एक हैं...
सखी उन आचार्यचरण की शरण ली तो सब द्वैत खो से गए...जैसे वे भी अभिन्न ही दिखे...रससार...रसलुब्ध...रसतृषित...अहा...
सखी. ..तब उन चरणों में ऐसा प्रकाश कि गोद में खेलते हुलसित सुंदर अतिमधुर रसमय द्वैतनु युगल अति गहन...निभृत...रसाट्ठकेलियों में रसीले होते दृष्टिगोचर हुए...इन नयनों की कहाँ सामर्थ्य थी निहारने की...
उन चरणों मने ही जैसे कृपा कर सब दरसा दिया...
निहारा क्या... !!
"माधुर्ये मधुरा राधा महत्त्वे राधिका गुरु:।
सौंदर्ये सुन्दरी राधा राधैवाराध्यते मया।।"
श्यामसुंदर...हाँ सखी...वे त्रिभुवन मनमोहन भोरी किशोरी जू के चरणों की आराधना कर रहे...अति सुंदर मधुता की राशि किशोरी जू श्रमित...पर प्रियतम सम्मुख विराजित प्यारे को समस्त रस-श्रृंगार ...रति-केलि कलाओं का दान दे रहीं और प्रियतम शिष्यवत् अपनी गुरुरूपा स्वामिनी जू से कर जोड़े रसदान ले रहे... ... ...
" सकल सुख साधि आराधि राधा गुरुहि धरत पग चपल साँवल तन तृभंगी।"
पुनः पट लगे...फिर वही क्षुधा...वही तृषा...चकोर नयनों को नृत्नवत् उन युगचरणों में ले आई...
और अब जो निहारा सखी...उसका क्या ही सुंदर विवेचन हो...बस...इतना कि श्यामसुंदर श्यामा जु की रंगीली चुनरी ओढ़े हुए थे या प्यारी को ही अंकवत् किए द्वैवपु एकत्व दरसा रहे थे...
सखी...बलिहारि...इन युगचरणन की...
"भजिवै कौं दो ही सुघर,कै हरि कै हरिदास।"
हाँ...हरिदासि ही तो वे गुरुचरन जिन्हें निहार तृषा भी चकोरवत् तृषित क्षुधित उनमें सम्माहित हो गई...और हे नाथ... !हे नाथ... !पुकारती फिर से जीवित होती चेतना में श्वास भरने लगी...जिन्होंने अपने तपोबल से एक मोती में दो तार एक साथ पिरो दिए और दरसा दिए सर्व लीलाओं के अनंत रसरंग...जयजय... ... ...
"बनी री तेरे चारि चारि चूरी करनि।
कंठसिरी दुलरी हीरनि की नासा मुक्ता ढरनि।।
तैसौई नैननि कजरा फबि रह्यौ निरखि काम डरनि।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी रीझि रीझि पग परनि।।"
ये चार चूड़ी कोई प्राकृतिक चूड़ी ना हैं री...ये तो प्यारे के कर की सुंदर कोमल चार अंगुलियाँ हैं जो प्यारी जू की अतिकोमल कलाइयों पर सुसज्जित हैं...सुगोल सुंदर कंठ पर प्रियतम की नरम लम्बी भुजाओं के हार...दुलरी...हीरनि...बेसर...सब आभूषण प्यारी जू के प्रियतम ही तो हैं...उनके रतनारे अनियारे नयनों की श्यामल कज्जलता...और नूपुरश्रृंगारित पगों की ढरन सखी री...मदनमोहन को हर रहे री...
सखी...ये सर्वसुख निहारन की सामर्थ्य दासी में कहाँ ...ये तो उन युगचरणों की कृपा से सब सम्भव हुआ री...जो अति कोमल रससार श्रीहरिदासानुदास जयजय सरकार जू के चरणों से लग दासी जैसी अनंत रसधाराओं को संयोजित कर युगलचरणों में कलीवत् अर्पित करते जा रहे री...
"भक्ति भक्त भगवंत गुरु,चतुर नाम बपु एक।"
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास !!

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ ...

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हर...

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ ...