*सुविलासा*
"प्यारी तेरी बाँफिन बान सुमार लागै भौहैं ज्यौं धनख।
एक ही बार यौं छूटत जैसे बादर वरषत इन्द्र अनख।।
और हथियार को गने री चाहनि कनख।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी सौं प्यारी जब तू बोलति चनख चनख।।"
कैसे कहूँ सखी री इन नैनन की बात... !
रतनारे...अनियारे...कजरारे... !
अहा...ये ऐसे री...जैसे सम्पूर्ण प्यारी जू की रसीली कटीली सजीली रूपमाधुरी से छके पगे...अनुपम माधुर्य की मधुर झलकन भर से चंचल हुए भ्रमर सम उड़ उड़ जाते और फिर रसभरे कैद इन नयनों की चपलता में छलक छलक जाते री...सहज सजल ये नयन की पुतरियाँ जैसे जादूगरनी सी...इनमें अटके पियनैन अन्यत्र कहीं देखना विस्मृत कर चकोरवत् ठहरे से रह जाते...जब जब रुकते री...पलक सम्पुट लट...आतुरतावश अकुलाने लगते पियनैन...लम्पट लव निमेश अंतर तें...निमिशभर...अल्प कल्प सत्सार..अल्पकाल भी कल्प समान बीते...
... ... ...*मेरी लाड़ली राजत रंग भरी*... ... ...
बांस की लकड़ी पर तीन अंगुली भर का स्पर्श... गौरचंद्रिका नख की किंचित रसभरी छुअन...प्रियतम तान देतीं नयन मुंदे प्यारी नयनन की मनमोहिनी झाँकी पर लुटे...हिय हारे से करकमल में सुप्त पड़ी बांसुरी पर मौन अधर व करांगुलियों की थिरकन को विस्मृत निरखन में चित्त गंवाए धरे के धरे रहे री...आह... ... ...!
अहा !सखी री...*कहा कहूँ इन नैननि की बात*
इन नैनन पर प्रियतम श्यामसुंदर जू का चित्त अटका सर्वोपरि सर्वाधिकार सर्वविभुतियाँ विस्मृत कर जावे...अहा... ... ...हा प्यारी जू...अपने ऐसे नैनन बैनन सैनन में मेरा चित्त भी यूँ अटकाए लेवो कि इत उत कित भी निहारनो भूल...चरणकमलन की नखचंद्रप्रभा पर भ्रमरवत सदैव मंडराता रहे...
हा प्यारी जू...जिन नैनन में अखिल ब्रह्मांड रसिक शिरोमणि श्यामसुंदर जू का प्रगाढ़ चित्ताकर्षण हो रहा तो क्या मेरा नन्हा सा हियप्रसून आपकी चरणनरज पर मुकलित विसर्जित नहीं हो सकता...
... ... ...सखी री...तभी तो प्यारी जू के बान समान नुकीले तीक्ष्ण पर मधुर रसीले हाव भावों का अवलोकन कर कुछ कह सकूँ ना...हा प्यारी जू... ... ...
* लड़ैतीजी के खंजन लोचना|
बिनहिं अंजन दिये बिहारी,बिरह विथा उर मोचना||
चपल चाल लालै अवलोकत,रूप लुभाय संकोचना|
'श्रीभट्ट' सुघर सुधीर स्याम कौ,करत निरंतर रोचना||*
सखी...नयन हिय का दर्पण ही तो होते और जब ये नयन पलकों के झरोखों से तनिक मुखछवि पर छलकते ढुरकते तो छबीले रंगीले हावभंगिमाएँ थिरक थिरक कर भृकुटिविलासों से कटाक्ष करतीं... सर्वथा हिय का छिन छिन रागानुराग भर भर रस उंडेल देतीं...और प्यारी जू के नयन तो ऐसे तीखे नुकीले कि *कोटि कोटि दामिनी ना नखछवि पावहिं*... ... ...सखी...इन पर पियहिय हार जाते जैसे स्वयं प्यारी जू के अधर अलक कपोल मुस्कनि गंड बरोनियाँ ललाट भौहें नासिका...समस्त मुखछवि कंचनवर्ण मुखकांति चंद्र को लजाती हिय सरसा देती...
*देखत है रुचि लिए मुख शोभा चित्त दिए*
सखी...अब इन प्रतिबिंब सम प्रियतम हिय की भावतरंगिकाओं पर प्रतिबंध लगातीं हाव-भाव रसिक स्वभाव रंगीली प्यारी जू का क्या कर अनुपमित बखान करूँ री...अहा... !जैसे... ... ...!जैसे रसलम्पट चित्तचोर मधुकर रसिक शिरोमणि सुंदर श्याम स्वयं को बिसार इनकी रूपमाधुरी में उतरते उतरते ना उतर पाते री...हा प्यारी जू की चंचल चित्तवन और उस पर ये रंगीले रसीले कटाक्ष री...हा प्रियतम...प्रियतम का हिय तो अकुला जाता ना...
सखी री...जैसे एक साथ अनंत रसफुहारें प्यारी जू के मन से बह कर नयन...अधर...कपोलों...पर गाढ़ा रसविहार सजा रहीं हों और प्रियतम क्षुब्ध इन अनंत रसफुहारों से बिंधे चोंके से पड़े आती जाती भ्रू लताओं का नृत्य देख मन ही मन नृत्यांगना का रूप धर प्यारी चरणों में हियप्रसून बन लुण्ठित हो रहे...प्रतिक्षण...नव...नव... ...नव... ... ... !नव सिंगार हो रहा प्रत्येक रंगमल्लिका का जो प्यारी जू के सुअंगों पर सुशोभित लज्जित हुईं प्रियतम के दरस से नूतन रसरंग में स्वतः छकी सी जा रहीं...अहा...
हाँ सखी...ये नवज्योत्सना पर नवीन ओस सी बूँदें जैसे रंग बिरंगी रसीली इन्द्र धनुषी होतीं प्यारी जू के मुखकमल पर सज जातीं और उनके हिय में पियमूर्त पर लजाती ढुरकती रसभरी नव...तानें बुनती नवीनतम होकर नयनों पर...नयनों से अधरों पर...और अधरों की कुमदिनी पर धनुषी रेख सी बनातीं कपोलों को खिला देतीं...कपोल खिलते ही अल्कें थिरक फुरक कर लटजालबंधन से छूट कर मंद मधुर स्पर्श से मुखकांति पर छाने लगतीं जैसे सरस सरसीली चाँदनी को रात्रि ने श्यामल ओढ़नी से ढाँप दिया हो...और प्रियतम तो इस छनती रूपमाधुरी की चंचलता चपलता पर मुग्ध हुए निहारते रह जाते...
और तनिक प्यारी जू के हिय में रसीली रंगभरी भावमरोड़न उठती तो... ... ...तो सखी री ...!उनके अंग प्रत्यंग जैसे करवट भर से समस्त देहश्रृंगारों को चमत्कृत कर और...और...और अत्यंत गहन रसीला रंगभरा भाव समन्वय बिठाते...अहा...
सखी...रसनिसृत भावभंगिमायों से छलकते प्रेम प्याले समस्त मंत्रमुग्ध करने वाले उच्चाटन...उन्मादन...वशीभूत...मोहन करते प्रियतम का चित्ताकर्षण कर लेते...और उनका घनीभूत मधुर तांडव पियहिय पर उत्ताल तरंगों सा छिन छिन खिन्न खिन्न होता रहता...प्रति भावझरन संग प्यारी जू के ललाट से चूड़ामणि...कर्णफूल...और हारावलि रस छिटकाती रसवर्धिका सी प्रियतम का मान चूर चूर कर उन पर हावी होतीं और गहरातीं रहतीं...सम्पूर्णतः चित्तचोर का चित्त भावभंगी कुशल त्रिभंगी से नित्य नूतन नव...नव...हरण होता रहता...
चतुर्गिंनी श्रीराधिका जु के चतुर नहीं अपितु अति मधुर रसरंगभरे...हिय को शीतातुर करने वाले सुंदर हाव-भाव...अहा...
"देखत सिरानें नैंन बैंन मधुरे सुनि श्रवना।
हाव भाव चित्त चाव चतुर मुख चुम्बित प्रमुदित रति रवना।।
परम सुबास सेज सुखदाइक रची है सुहस्त स्याम कुंज भवना।
श्रीबिहारिनिदासि अंग अंग सीतल भये मन्द सुगंध परसि पवना।।"
सखी री...प्यारी जू की मधुर रसीली...हियप्रसून को तत्क्षण खिला देने वाली भावभंगिमा उनके रोम रोम से प्रसफुटित होती... अंग प्रत्यंग से छलक कर प्यारी जू के दिव्य आभूषणों में चनख-चनख झनक-झनक झिलमिलाने लगती है...
सखियों संग प्यारी जू प्रियतम हृदय श्रृंगार बन उज्ज्वल केलि का आदान प्रदान अपने सुगंध नृत्य कलाओं से करतीं हैं...एक तरफ तो उनकी मुखछवि...और उस पर मधुर रसस्कित हाव-भावों से सजती हिय की रसीली फुलवारी...एक एक नवीन भाव पियनैन से नयन मिलते ही छलक उतरता प्यारी जू के अधरों से और श्रृंगार करते आभूषणों पर जब लजाती सुपलकें गिरतीं तो हिय पर सुसज्जित मणिहार की प्रत्येक मणि प्रफुल्लता से प्यारी जू के मुखभावों का आलिंगन कर मुखकांति के प्रतिबिंब हो उठती जिसमें प्रियतम रसीली रंगीली जू का अनंतगुना मणियों में अनंत रंग में रचाबसा अनंतरस में डूबा अनंत भावों का दरस कर मुग्ध हुए निहारने लगते...मात्र...नयनों का कोरभर सान्निध्य पाकर प्रियतम प्रफुल्ल मना प्यारी जू की सुमधुर भावभंगिमाओं में डूबे से रह जाते...अहा...
प्यारी जू अब जब प्रिय को यूँ मणिहार पर यूँ टकटकी लगाए निरखतीं तो किंचित श्वासभर मणिमाणिकों को यूँ दमका देतीं कि घनमाधुरी में दामिनी सी कौंध जाती और स्यामल दृष्टि मीन सम प्यारी उर पर उद्वेलित स्पंदित डूबते उतरते विचलित होते होते झुक सी जाती री...
और उधर प्यारी जू की दंतकांति से ...कटि की थिरकन और मधुर हुई पियहिय को आकर्षणत जबरन प्यारी नयनों में निरखने भर का अवसर दे देती...नयनकोर झलकन से तुरंत प्यारी जू की लज्जाशीला पलकें गिर कर कनकवर्णी सुधंग ग्रीवा का अवलोकन रसविलोकन कराने लगती और वहीं गुणातीत मधुर स्पर्श से विचलित पुलकित कटि की किंकणी प्यारी जू के सुकोमल जावक जुत चरणकमलों को तान सी देतीं जिससे उनकी अल्तारंगित पायजेब के घुंघरु तनिक फुरक फुरक कर नखप्रभा से पदांगुलियों पर पहने बिछियों की रत्नजड़ित मणियों को दमका देतीं...बिन मोल...बिना मंत्र...प्रेमपाश में बंधे हुए से प्रियतम श्यामसुंदर प्यारी जू को इकटक निहारते ना अघाते...नव...नव...प्रतिपल रंगभरती रंगीली जू की चित्तवन पर गिरते थिरकते नवीन नूतन हाव-भाव...अहा ... ... ...
"नाचत दोऊ रहसि में रंग भीनें।
हाव भाव उपजत अंग अंगनि कोककला मन दीनें।।
बाजत मधुर मृदंग किंकनी नूपुर ताल नवीनें।
होड़ी होड़ा तान तिरप गति लेत नहीं कोऊ हीनें।।
राकारति रजनीकर आनन उदिऔ मदन बस कीनें।
रीझि रीझि भगवत स्वामिनी लाल अंक भरि लीनें।।"
मधुरा जू के मधुर मधुर रसीले हाव-भाव...क्या कहूँ री...जहाँ प्रियतम स्वयं चित्रलिखे से प्यारी जु की रसीली चितवन के शिकार हुए क्षुब्ध हावभावों पर...नृत्य की सुमधुर गति पर...तालबंधान की कोककलाभीनी सुधंग तानों पर भ्रमरवत मधुर गुंजार कर रहे हैं वहाँ...सखी री...वहाँ...मैं कैसे ना रसजड़ता को त्याग चेतनता की ओर अग्रसर होती अपने मनकमलों को प्यारी चरणों में अर्पित कर शीतातुर प्रियतम को मंद मंद ब्यार सम रसीले सींचन भींजन से शीतलता को नवीनता भर नवभावों को संजो सकूँ री...नि:शब्द...सखी वाचाल सी इन उत्ताल तरंगों में डूबती रसस्वभावों की उच्चकोटि निर्वचनिय भावभंगिमाओं की कठपुतली सी बस संग संग उड़ सकूँ री...
अद्भुत सुविलासिता छलकती सजती प्यारी जू के नयनों...अधरों...हियकंवलों से झलकती नित्य नूतन रसीली रूपछवि का निराला दरस करातीं तृषित चकोर रसिक शिरोमणि श्यामसुंदर जु को...
"आजु कछु केलि अधिक मन भाई।
हाव भाव प्रवीन किसोरी रति विपरीत उमँगि हियैं आई।"
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!
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